बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
'बोधिसत्व' पर टिप्पणी लिखिए।
अथवा
'बोधिसत्व' एवं 'अर्हत' के प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
अथवा
बौद्ध नीतिशास्त्र में बोधिसत्व के आदर्श एवं अर्हत् की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
महात्मा बुद्ध अपने जीवन काल में ही जनसामान्य के मोक्ष की चिन्ता किया करते थे। हीनयान सम्प्रदाय वैयक्तिक मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकार करता है परन्तु महायान सम्प्रदाय की मान्यता है कि अपनी मुक्ति हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए, इसके विपरीत दूसरों की मुक्ति के लिए प्रयासरत् रहना चाहिए। महायान सम्प्रदाय का मूलमन्त्र लोक-कल्याण रहा है तथा इसी के अनुरूप वे केवल अपनी मुक्ति की अपेक्षा सभी जीवों की मुक्ति को जीवन का आदर्श मानते हैं। निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् वे संसार से विमुख नहीं होते हैं, बल्कि दुःखी प्राणियों के दुःख की समाप्ति तथा निर्वाण की प्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। महायान के इसी आदर्श को बोधिसत्व कहते हैं।
महायान सम्प्रदाय में जो व्यक्ति बोधिसत्व को प्राप्त करता है तथा लोक-कल्याण की भावना से क्रियाशील रहता है वह बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व का जीवन करुणा तथा प्रज्ञा से संचालित होता है। नागार्जुन ने कहा है कि सभी बोधिसत्व महकरुणाचित वाले होते हैं तथा प्राणिमात्र उनकी करुणा के पात्र होते हैं। बोधिसत्व में प्राणियों को दुःख से छुटकारा दिलाने के लिए अलौकिक शक्ति का संचार होता है। बोधिसत्व लोक-कल्याण की भावना से कार्य करते हैं तथा इस सन्दर्भ में वे आवागमन के कष्ट से भी भयभीत नहीं होते हैं बल्कि जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ने पर भी उनका चित्त स्वच्छ रहता है। उनके मन में कोई आसक्ति नहीं होती है। बोधिसत्व जन्म-मरण के चक्र में फंसकर भी स्वच्छ तथा निर्मल रहते हैं। वे अपने कर्मों के द्वारा अन्य प्राणियों के दुःखों को दूर करते हैं साथ ही उन प्राणियों के अशुभ एवं पापपूर्ण कर्मों का योग भी स्वयं करते हैं। कर्मों के इस आदान-प्रदान को परिवर्त कहते हैं। बोधिसत्व की अवधारणा को स्वीकार करने के कारण ही महायान सम्प्रदाय बोधिसत्व ज्ञान कहलाता है। महायानियों के बोधिसत्व की तुलना गीता के स्थितप्रज्ञ एवं वेदांत के जीवन मुक्त अवस्था से की जा सकती है। बोधिसत्व सभी प्रकार के आध्यात्यिक गुणों से युक्त मनुष्य का सर्वोच्च आदर्श है। धर्म के क्षेत्र में बोधिसत्व की समानता ईश्वर से की जाती है।
बोधिसत्व का अर्थ है बोधि (ज्ञान) प्राप्त करने की इच्छा करने वाला व्यक्ति। यह सम्बोधि के पूर्व की अवस्था है। महायान में साधकों की निम्नलिखित तीन श्रेणियों को स्वीकार किया गया है :
(i) श्रावक - साधना के द्वारा केवल अर्हत् पद को प्राप्त करने वाला साधक श्रावक कहलाता है।
(ii) प्रत्येक बुद्ध - ऐसा साधक बिना गुरु की सहायता के ही बुद्धत्व का लाभ प्राप्त करता है। वह अपने निवार्ण प्राप्ति के बाद एकाकी जीवन व्यतीत करता है।
(iii) बोधिसत्व - सम्यक् समाधि की अवस्था प्राप्त करने वाला व्यक्ति बोधिसत्व कहलाता है। वह समाष्टि के कल्याण के लिए कार्य करता है। वह सभी प्राणियों को कष्टों से मुक्त कराना चाहता है तथा ऐसा करने से उसे आनन्द की अनुभूति होती है। बोधिसत्व अपने निवार्ण की प्राप्ति के पश्चात् अर्हत् की भाँति सन्तुष्ट नहीं हो जाता है, बल्कि सभी प्राणियों के निर्वाण का संकल्प लेता है। परोपकार तथा समाज सेवा उसके विशिष्ट गुण होते हैं। करुणा के वशीभूत होकर ही वह व्यक्तिगत निर्वाण को अनदेखी कर सभी के सुख के लिए अपने सुख का परित्याग करता है।
बोधिसत्व में परोपकार, सामाजिक सेवा, करुणा तथा परार्थता के भाव भरे रहते हैं। बोधिसत्व अन्य प्राणियों के दुःख से दुःखी तथा सुख से सुखी होता है तथा करुणा के वशीभूत होकर ही वह सामूहिक कल्याण के लिए तत्पर होता है। इसी भावना से प्रेरित होकर बुद्ध ने भी 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की शिक्षा दी। वे स्वयं बुद्ध होते हुए भी सबों को बुद्ध बनाना चाहते थे। लोक-कल्याण की भावना ही बोधिसत्व की आधारशिला है।
बोधिसत्व में लोक-कल्याण की भावना समाविष्ट है। लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही वे संकल्प करते हैं कि जब तक विश्व के सभी प्राणी कष्टमुक्त नहीं हो जाते तथा निवार्ण प्राप्त नहीं कर लेते तब तक वे परिनिर्वाण को नहीं अपनायेंगे। करुणा बोधिसत्व का आवश्यक धर्म है। यहाँ अन्य व्यक्तियों के निवार्ण की कामना करना तथा उसके लिए प्रयास ही बुद्ध धर्म है।
बोधिसत्व के लिए दो बातों को आवश्यक माना गया है तथा वे हैं बोधिचित्त एवं बोधिचर्या दान, शील, क्षांति (क्षमा), वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा की षट् पारमिताओं के अभ्यास को बोधिचित्त कहा गया है। बुद्धत्व की प्राप्ति के पश्चात् सम्यक् सम्बोधि में चित्त को लगाना ही बोधिचित्त कहलाता है। बोधिसत्व के लिए जिन कठोर नियमों को स्वीकार किया गया है उन्हें ही बोधिचर्या के रूप में जाना गया है। इन नियामों के अन्तर्गत वेदना, पूजा शरण-गमन, पाप-ढेशना पुष्यानुमोदना, अध्येषणा, आत्मभावादि परित्याग हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि बोधिसत्व महायान सम्प्रदाय का सर्वोच्च एवं परम आदर्श है। यहाँ बोधिसत्व को देव तुल्य मानव के रुप में स्वीकार किया गया है।
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